इस श्लोक में बताया गया है कि जीवन का श्रेष्ठ तत्व शिष्य होता है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में यदि सबसे उच्चकोटि का कोई शब्द है तो वह शब्द शिष्य है। शिष्य का मतलब यह नहीं है कि वह गुरू से दीक्षा लिया हुआ व्यक्ति हो। शिष्य का मतलब है कि जो प्रत्येक क्षण, नवीन गुणों का अनुभव करता हुआ अपने जीवन में उतारता हो वह शिष्य है। बालक भी शिष्य है, जो मां के गुणों को अपने जीवन में उतारता है, देख करके उसके अनुरूप बनता है। उसमें इतनी समझ नहीं होती, बालक केवल नकल करता है। यदि बालक देखता है कि मेरे पिता शाम को आकर मां से लड़ते-झगड़ते हैं, गालियां देते हैं, तो वह चाहे पांच साल का हो, आठ-दस दिन बाद उसके भी मुँह से गालियां निकलने लग जायेंगी। उसको मालूम नहीं कि मैं गाली दे रहा हूं, या नहीं दे रहा हूं, पर बाप के गुणों का धीरे-धीरे उसके चित्त पर प्रभाव पड़ता रहेगा। मां यदि लड़ती है तो उसके व्यक्तित्व का प्रभाव भी बालक के चित्त पर पड़ता है। इसलिये बचपन से लगाकर जीवन के अंतिम क्षण तक जो भी क्षण व्यतीत होते हैं, वे सब शिष्य रूप में ही व्यतीत होते है। और जब हमारा शिष्य रूप दब जाता है, तब राक्षस वृत्ति हम पर हावी हो जाती है, क्योंकि चारों तरफ का वातावरण ही राक्षस वृत्ति का है।
आज ही नहीं, सतयुग से लगाकर आज तक का जीवन राक्षसमय ज्यादा रहा है, पापमय ज्यादा रहा है, वाममार्ग ज्यादा रहा है, असद्गुणों के विकास में सहायक ज्यादा रहा है। सैकड़ों-हजारो कांटो-बबूलों में से एक-दो गुलाब के फूल खिलते हैं, हजारों फूल नहीं खिल पाते। शंकराचार्य कहते हैं कि हजारों लोगों में से एक-दो व्यक्ति ही ऊंचे पद पर पहुंच पाते हैं, उच्च व्यक्तित्व बन पाते हैं। हजारों के हजारों नहीं पहुंच पाते, हजारों तो केवल फुटपाथ पर चलने वाले होते हैं, बनिये होते हैं, व्यापारी होते हैं या लड़ाई-झगड़ा करने वाले होते हैं या नशा करने वाले होते हैं, या अपने आप में हिंसा पाले होते हैं, वे ऊंचे उठ भी नहीं सकते। जीवन में ऊंचा उठना है! और यदि नहीं उठते है तो यह जीवन व्यर्थ है, क्योंकि ऊंची सीढ़ी पर चढ़ना बहुत कठिन है, नीचे फिसलना बहुत आसान है। इन सीढि़यों से नीचे उतरने में एक सेकेण्ड लगता है, परन्तु दस सीढ़ी चढ़ने में आपको बीस सेकेण्ड लगेंगे। एक-एक सीढ़ी चढ़नी पडेगी, आपको नित्य बार-बार सोचना पड़ेगा कि मैं शिष्य बन रहा हूं या नहीं बन रहा हूं।
क्या अन्दर में राक्षस वृत्ति पनप रही है या सद्गुणों का विकास हो रहा है? मेरा जीवन कैसा व्यतीत हो रहा है, अपने आपमें विश्लेषण करना जीवन की श्रेष्ठता है, महानता है और यह वह व्यक्ति कर सकता है जो अपने आप में बिलकुल शिष्यत्व बनकर गुरू के पास रहने का सामर्थ्य रखता है। और शंकराचार्य कहते हैं, ऐसे ही व्यक्ति गुलाब के फूल बनते हैं, जो सही अर्थों में गुरू के लिए अपने आपको समर्पित कर देते हैं। अकबर के जमाने में तानसेन बहुत बड़ा गायक बना। उसके गुरू हरिदास थे और हरिदास के पास चालीस शिष्य थे, 41 वॉ शिष्य तानसेन था। एक बार जब तानसेन अकबर के दरबार में गायक था, अकबर ने कहा कि तुम इतने इच्छे संगीतज्ञ हो तो तुम्हारे गुरू कैसे होंगे? उसने कहा वैसे ही हैं जैसा मेरा शरीर है, जैसी मेरी आकृति है, वैसे ही हैं। मगर मेरे में और उनमें अंतर यह है कि उनके शब्द, उनकी ध्वनि मुझसे करोडों गुना ऊंची है, क्योंकि उनमें सद्गुणों का विकास है, मैं एक नौकर हूं, मैं आपकी दी हुई रोटियां खाता हूं, इसलिये आपके पास हूं। परन्तु वे तो उन गुणों के कारण पूजे जाते हैं।, वे श्रेष्ठ हैं, पूर्ण हैं मगर आप उनसे अभी नहीं मिल पायेंगे।
अब अकबर तो राजा था ऐसे व्यक्ति क्रोधी होते ही हैं। उसने कहा मैं देखता हूं कैसे नहीं मिल पाते और वे गये, बाहर शिष्य घूम रहे थे। उसने कहा- मै हरिदास से मिलना चाहता हूं, मैं अकबर आया हूं। शिष्य ने कहा होंगे कोई अकबर, हमारा अकबर से कोई लेना-देना नहीं हैं, हम तो एक नाम जानते है ‘हरिदास’ इसके अलावा न हमें नाम जानने की आवश्यकता है, न हम किसी नाम को जानते हैं, आप अकबर होंगे तो होंगे, राजा होंगे तो होंगे, हम अपनी चाकरी खाते हैं, हम दूसरों के अधीन नहीं हैं, अपनी खेती करते हैं, उसकी रोटी खाते हैं और हम शिष्य हैं एक नाम के अलावा हमारे होठों पर कोई दूसरा नाम आ ही नहीं सकता।
अकबर ने तलवार निकाली और उस शिष्य की गरदन काट दी ज्योंहि काटी उस जगह पर दूसरा शिष्य आकर खड़ा गया। उसने कहा आप मिल नहीं पायेंगे, गुरूजी ने कहा है मैं इस समय किसी से भी मिलना नहीं चाहता हूं, तो आप नहीं मिल पायेंगे। और इतिहास साक्षी है कि उसने चालीस शिष्यों की गर्दन काट दी, एक शिष्य गिरा तो दूसरा शिष्य खड़ा हो गया, दूसरा गिरा तो तीसरा आकर खड़ा हो गया। एक क्षण भी यह चिन्ता नहीं की कि मेरा जीवन है, मैं यह क्या कर रहा हूं। उनके मन में एक ही बात थी कि मै शिष्य हूं और गुरू के लिये तो जीवन सर्वस्व आज नहीं करूंगा तो कल मौत मुझे खींच कर ले जायेगी, मैं मर जाऊगां। कभी न कभी तो मौत मुझे ले ही जायेगी, आज नहीं तो बीस साल बाद, गर्दन से मरोठ कर खत्म कर देगी। मैं एक अच्छे गुणवान व्यक्तित्व के लिये अपनी जान को न्यौछावर कर देता हूं, तो वापस जन्म ले लूंगा, मगर मेरा नाम इतिहास में तो अमर रहेगा की क्योंकि आज तक जिन सीढि़यों पर चढ़ा हूं ये सद्गुणों की सीढि़या है। गुरू हरिदास ने हमें ज्ञान दिया है, वह यह कि हमें श्रेष्ठ बनना है और अपने आपको आत्मोत्सर्ग करने से ही श्रेष्ठता बनती है। जहां पर भी छल, प्रपंच होता है, जहां पर भी षड़यंत्र होता है, जहां पर भी गुरू के विरूद्ध विष-वमन होता है, वहां पर शिष्य सुन नहीं सकता। अकबर ने कहा- मैं मिलना चाहता हूं, जबरदस्ती मिलूंगा। शिष्यों ने कहा हम बीच में खड़े है, आप नहीं मिल सकते, तब तक जब तक उनकी आज्ञा नहीं होगी और उनकी आज्ञा मिली नहीं है। इतना सुनना था कि अकबर ने उसकी गर्दन काट दी।
और केवल एक व्यक्ति की आज्ञा का पालन करने के लिये इतने शिष्यों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। हरिदास ने कहा- मैं तो राम का चाकर हूं, मुझे कोई और चाकरी करने की जरूरत नहीं है, इसलिए उनसे कह दीजिये कि मैं उनसे मिलने की इच्छा रखता नहीं हूं, मैं गुणगान करता हूं तो ईश्वर का गुणगान करता हूं आत्मा का गुणगान करता हूं। और अकबर ने एक-एक करके केवल पांच मिनट में 40 शिष्यों का वध कर डाला। अकबर को बड़ा अचरज हुआ कि ये कैसे शिष्य है? ये तो गुणों की खान है, हीरों की एक पोटली है, पूरी बोरी भरी हीरों की। एक-एक व्यक्ति अपने आप में हीरों से भरा व्यक्तित्व है, केवल एक आज्ञा के लिये अपनी जान को न्यौछावर कर दिया, मेरा षड़यंत्र, मेरा छल, मेरा प्रपंच, मेरा झूठ कुछ भी काम न आया, मैं कुछ कर भी नहीं सका। अकबर महान मै अपने आप में झूठा ही कहलाता हूं, महान तो ये हैं क्योंकि इन सबने अपनी महातना का परिचय दिया है, अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया। उन शिष्यों ने समझ लिया कि यह जीवन तो बहुत छोटी सी चीज है, यह जीवन आज जाये या आज से बीस साल बाद जाये उससे क्या फर्क पड़ता है। यदि हमने गुरू की रक्षा ही नहीं की, यदि हम उनके काम ही नहीं आ सके, यदि हम उनको प्रसन्न ही नहीं कर सके, यदि उनको ही षडयंत्र का शिकार होने दिया तो फिर हमारे जीवन का कोई अर्थ नहीं है।
अकबर अत्यंत लज्जित होकर के वापस घोड़े पर बैठ कर अपने सैनिकों सहित अपने दरबार में आ गया और आकर फूट-फुट कर रोने लगा कि आज मैं सबसे अधम व्यक्तित्व बन गया हूं। आगे की कहानी तो और है कि तानसेन के माध्यम से किस प्रकार झूठ का सहारा लेकर उन हरिदास का संगीत सुना। वास्तविक कहानी तो यह है कि एक आज्ञा के पालन के लिये उन शिष्यों ने अपने जीवन को भी बहुत छोटा सा समझा। और आज भी उन शिष्यों के नाम आइने अकबरी में स्पष्टता के साथ अंकित है। आज भी भारत के इतिहास में उन 40 लोगों के नाम अंकित है। हरदिास को यह ज्ञात ही नहीं हुआ कि मेरे चालीस शिष्य कट चुके है, वे अपनी झोपडी़ में संगीत में बिलकुल मग्न थे। शंकराचार्य कहते है जीवन का श्रेष्ठतम शब्द शिष्य है और वह होता है जो अपनी जान को हथेली पर लेकर चलता है। दो तरह के व्यक्ति होते हैं, एक व्यक्ति सद्गणों का आगार होता है, एक व्यक्ति षडयंत्र का भण्डार होता है जो कि चौबीसो घण्टे यही सोचेगा कि मैं कैसे छल करूं? कैसे झूठ बोलूं? कैसे प्रपंच रचूं, कैसे इनको फुसलाऊं? कैसे इनमें फूट डालूं? कैसे इन दोनों को लड़ाऊं ? कैसे अपने आप को श्रेष्ठ सिद्ध करूं?
परन्तु शिष्यों के चित्त पर इन सबका कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वे समझते हैं कि मैं क्या हूं। जो सही अर्थों में शिष्य है और जिनके अन्दर सद्गुण हैं, वे असद्गुणों को तुरन्त भांप लेते हैं। जो गुलाब के फूलों के बीच रहते हैं, जब थोड़ी सी भी नाली की दुर्गन्ध आती है तो वे भांप लेते हैं कि यहां दुर्गन्ध है, कहां से नाली बह रही है यह मालूम नहीं पर दुर्गन्ध है अवश्य और उन्हें एहसास होता है कि उन्हें दुर्गन्ध से दूर हट जाना है। ऐसा शिष्य या तो किनारा करके खड़ा हो जाता है। या फिर उस सुगन्ध में स्वयं को व्याप्त करने के लिये तैयार हो जाता है। मगर वह नाली का कीड़ा नहीं बनता, और नाली का कीड़ा उनकी आज्ञा पालन करने के लिये, अपने जीवन को भी आत्मोत्सर्ग करने के लिये, वह तैयार रहता है, यही जीवन की श्रेष्ठता का एक मापदण्ड है।
यदि हमने गुरू के लिये अपने आप को न्यौछावर ही नहीं किया, तो जीवन व्यर्थ है। जीवन में एक तरफ ऐसे व्यक्ति हैं जो गुरू हैं और जीवन में गुलाब के फूल तो चार-पांच ही खिलेंगे और यदि चार-पांच फूल भी टूट गये तो फिर कांटे ही जीवन में रह जायेंगे। जहां भी जाओगे, तुम्हें कांटे ही मिलेंगे। उन काटों के बीच जीवित नहीं रहना है, क्योंकि अगर उन फूलों को जीवित रखना है तो उन कांटों को तोड़ना ही पड़ेगा, उन कांटों को तोड़ेगें तो फूल विकसित होंगे, आसपास की घास खोदेंगे तो फूल का विकास होगा।
और हमने जीवन में कांटों का विकास किया या फूलों का विकास किया, कांटों की रक्षा के लिये अपने क्षणों को व्यतीत किया या फूलों की रक्षा के लिये अपने क्षणो को व्यतीत किया, यह चिन्तन का विषय है। हमने अपने जीवन के कितने क्षण उस गुरू को दिये? कितना समय उनके लिये दिया? किस प्रकार से उनको बचाया? किस प्रकार से उनकी सेवा की, यह जीवन का एक उच्च स्तरीय सोपान है, यह जीवन का एक उच्च स्तरीय मापदण्ड है, अपने आपको नापने की एक क्रिया है, और यही स्थिति शिष्यता कहलाती है। शिष्य शब्द से ही सेवा शब्द बना है, जहां सेवा है वहां शिष्यता है। जहां शिष्यता है वहां सेवा है और सेवा का मतलब है उन गुलाब के फूलों को विकसित करने में सहयोग देना और सहयोग देने के लिये तूफान-आंधी के बीच में तन कर के खडे़ हो जाना, क्योंकि अगर वे ही गिर गये तो चारों तरफ नाली के कीड़े बहने लग जायेगें। फिर हमारा जीवन अपने आप में व्यर्थ हो जायेगा, फिर हमारे जीवन का कोई अर्थ नहीं रह पायेगा।
और चाहे कितने समय तक भी रहें, उतने समय तक हम अपनी छाती ठोक कर कह सकते हैं कि हमने कुछ क्षण उनके साथ बिताये हैं और तूफान की तरह उस अंधकार और उस प्रकाश के बीच तनकर खडें रहें। ऐसा व्यक्ति ही जीवन में उच्च शिखर पर पहुंचता है। और जो ऐसा व्यक्तित्व नहीं होता है वह एक सामान्य जीवन बबूल है, कांटे हैं, वैसा बनकर रह जाता है। जीवित दोनों ही रहते हैं, मगर वह सामान्य जीवन जीवन नहीं होता, एक धैर्य तो होता है, एक चिन्तन तो होता है परन्तु अपने आप में पूर्ण सन्तोष नहीं होता है। मैंने तो सैकड़ो प्रकार के जीवन जिये है, गृहस्थ शिष्यों के बीच में भी रहा हूं, संन्यासी शिष्यों के बीच भी रहा हूं । संन्यासियों में भी कई हल्के स्तर के भी होंगे, कुछ बहुत अच्छे स्तर के भी हैं, जिनके नाम आज भी मेरे चित्त पर बहुत गहरी स्याही से लिखे हैं और आज भी मैं उनके सम्पर्क में हूं।
भैरवानन्द एक ऐसा ही शिष्य था, जो 24 घण्टे साथ रहता था, सात साल में एक क्षण भी ऐसा याद नहीं आया कि पीछे पलट कर देखूं और वह मुझे नहीं दिखाई दे। बिलकुल तत्पर, चौकस हर क्षण और आंख के इशारे को समझने वाला कि गुरूदेव इस समय क्या चाहते हैं, पानी पीना चाहते हैं, विश्राम करना चाहते हैं, लेटना चाहते हैं, पांव दबवाना चाहते हैं, क्या चाहते है, वह आंख के इशारे को समझता था। और जब तक मै जागता था, तब तक बिलकुल जागता रहता था, जब मैं सोता था उसके बाद ही वह सोता था। और जब मैं सुबह उठता तो उसके पहले पानी की बाल्टी भरी हुई, लंगोट रखी हुई साफ-सुथरी, आंगन लीपा हुआ होता था। वह भी स्नान किया हुआ, तैयार रहता था, ना मालूम सोता था भी या नहीं।
ऐसे एक नहीं कई शिष्य हैं, यदि कभी मौका मिले तो मैं उन शिष्यों के जीवन को जो उन्होंने मेरे साथ बिताये हैं, लेकर के एक पुस्तक लिखूंगा जो आने वाले शिष्यों के लिय एक प्रकाश होगा, क्योंकि लिखना अपने आप में घास काटना नहीं है, कि खुरपी ली और घास काट दी। लिखने के लिये तो पूर्ण मानसिक शान्ति चाहिये और पूर्ण मानसिक शान्ति तब हो सकती है जब काटों और गुलाब के बीच में एक व्यक्ति तन करके खड़ा हो, एक नहीं चालीस व्यक्ति तनकर खडें हों, कि यह अंधेरा, यह तूफान मैं यहां नहीं आने दूंगा, जिससे गुलाब का फूल मुरझाकर गिर जाये। कृष्ण को भी तीर लगा तो उनके भी खून निकला ही निकला, राम को भी अगर रावण के तीर लगते तो उनके शरीर में भी कम से कम 108 छेद हो ही गये होते। वह तो एक शरीर है, उस शरीर के अन्दर ईश्वरत्व है, उस शरीर के अन्दर शिष्यत्व है।
आपने अपना जीवन किस तरीके से व्यतीत किया है और गुरू ने अपना जीवन किस तरीके से व्यतीत किया यह महत्वपूर्ण है। क्या गुरू तुम्हारा बराबर सहयोगी रहें? क्या गुरू तुम्हें बार-बार प्रेम से बोलते रहें? क्या गुरू ने तुम्हें कभी गालियां दीं? क्या गुरू ने तुमसे कभी षडयंत्र किया? नहीं किया! तो तुम्हें भी कोई अधिकार नहीं है कि उनके प्रति षडयंत्र करें, उनके प्रति झूठ बोलें, या उनके प्रति छल करें, उनके प्रति तूफान को आने दें। गुरू को मानसिक शान्ति मिले, यही हमारा धर्म है, जिससे कि वह उस ज्ञान के बारे में लिख सकें जो कि अपने आप में एक जीवंत, जागृत, चैतन्य काल गणना हो। इसलिये शंकराचार्य कहते है कि जन्म से लेकर मृत्यु तक चाहे आप व्यापारी हैं, चाहे नौकरी पेशा है, चाहे आप किसी भी क्षेत्र में हैं, आप शिष्य है। मृत्यु के क्षण तक भी शिष्य है शिष्य का अर्थ है कि आप क्या जीवन में सीख रहें हैं? आप क्या कर रहें हैं और आप किसके लिये क्या कर रहे हैं? क्या अपने लिये? अपने लिये! तो अगर एक रोटी का टुकड़ा पड़ा होगा तो चार कुत्ते झगड़ कर के एक कुत्ता उसका छोटा सा भाग लेकर भाग जायेगा, वह अपने लिये करता है। हमने दूसरों के लिये क्या किया वह महत्वपूर्ण है।
यह जीवन का एक सद्गुण है कि हमने समय कैसे बिताया? अगर गुरू सेवा में बिताया तो उच्चता है और गुरू की अपेक्षा शिष्य में भांपने की शक्ति तेज होती है। हरिदास को तो मालूम ही नहीं था कि बाहर में शिष्य कट रहें हैं, अगर उसे मालूम होता तो वह दौड़ कर खड़ा हो जाता बीच में कि मुझे पहले काट डालो परन्तु उनको तो शिष्यों ने हवा ही नहीं लगने दी। और हरिदास की वजह से ही जो संगीत आज सुनाई देता है, वह शास्त्रीय संगीत जीवित रह सका। तानसेन की वजह से जीवित नहीं रहा, तानसेन तो रोटियों के लिये अकबर के दरबार में चाकरी करने वाला एक नौकर था। चाहे वह अच्छा संगीतज्ञ था, मगर संगीत बेच करके रोटियां खाई। हरिदास ने रोटी के लिये संगीत बेचा नहीं। यह दोनों में भेद था। इसलिये तानसेन के लिये कोई कटा नहीं, तानसेन तो अफगानिस्तान के युद्ध में मारा गया, उसको भी षड़यंत्र करके अकबर ने मरवा ही दिया। जब देखा कि अब यह तानसेन कोई काम का नहीं है तो षड़यंत्र कराया और अफगानिस्तान में युद्ध हो रहा था सेना के साथ तानसेन को भेज दिया और अपने ही सैनिकों द्वारा कटवा दिया। अकबर का तो पूरा जीवन चरित्र ही षड़यंत्रों से भरा हुआ है। और जो भी राजा होते थे, वे या तो सद्गुणों का विकास करते थे या षड़यंत्र करते थे।
दो ही चीजें होती हैं व्यक्ति में होता है। यही अंतर होता है, इसलिये तानसेन को आज भी इतिहास क्षमा नहीं कर रहा है और हरिदास को आज भी अपने सिर-आंखों पर बिठाये रखता है। और आप देखेंगे कि जो उच्च कोटि के संगीतकार है वे सबसे पहले संगीतकार हैं वे सबसे पहले संगीत आरम्भ करते समय हरिदास को प्रणाम करते हैं, उनको नमन करते हैं, उनका आशीर्वाद लेते हैं, क्योंकि उनकी वाणी आज भी हवा में गूंज रही होगी, आज भी उनको गुरू मानकर ही पूजा करते है और यह अपने आप में उच्चकोटि के गुणों का विकास है। हमें इस बात का चिन्तन करना चाहिये कि क्या हम शिष्य हैं और क्या हम तूफान को झेलने की क्षमता रखते हैं? और नहीं रखते हैं तो फिर शिष्य कैसे? नहीं कटे तो फिर शिष्य कैसे हुये?
अपने आपको बलिदान नहीं कर दिया तो शिष्य कैसे हुये? आगे भी चाहे गुरू तुम्हारे पास नहीं होगा परन्तु वह सुगन्ध तुम्हारे पास व्याप्त होगी कि हमने कुछ क्षण ऐसे व्यक्ति के साथ बिताये हैं जिनमें ज्ञान था, चेतना थी जो सही अर्थों में व्यक्तित्व था मगर जिसे तूफानों के बीच धकेल दिया हमने। और तूफान के बीच तो अच्छे से अच्छा गुलाब भी मुरझा करके टूटकर गिर जाता है, अच्छे से अच्छा राम भी बाणों का शिकार होकर गिर जाता है, अच्छे से अच्छा कृष्ण भी एक तीर लगने से मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। लेकिन- नैनं छिदन्ति शस्त्राणित्र—-
शरीर तो टूटकर गिरेगा ही, आत्मा भले ही ना गिरे, कृष्ण की आत्मा हमारे पास है, राम की आत्मा हमारे पास है पर शरीर तो चला ही गया और शरीर चला गया तो कृष्ण की वाणी भी चली गई। यह गीता अपने आप में अधूरी है, श्रीमद् भागवत में लिखा है कि गीता के छः सौ श्लोक हैं, हमें जो गीता प्राप्त हो रही है, उसमें 148 श्लोक है, बाकी के श्लोक कहां चले गये? बाकी के श्लोक कृष्ण के साथ ही चले गये, क्योंकि असमय में हमने उनको मार दिया एक भील ने तीर मारकर कृष्ण को समाप्त कर दिया, छोटे से षडयंत्र कारी ने कृष्ण को समाप्त कर दिया, क्योंकि उनके बीच में कोई चट्टान की तरह तन कर खडा होने वाला व्यक्ति नहीं था।
यह जीवन का उच्च स्तरीय सोपान है कि अगर एक गुलाब का पुष्प भी खिला हुआ है, पूरे जंगल में, तो उस गुलाब को बनाये रखना मेरा धर्म है, क्योंकि गुलाब और दस गुलाबों को पैदा कर देगा, सौ गुलाबों को विकसित कर देगा। एक वह गुलाब भी टूट गया तो फिर कांटे ही कांटे बिखरे होंगे। शंकराचार्य ने इस श्लोक में दूसरा शब्द लिया है प्रेम जिसके हृदय में प्रेम है वह गलती कर ही नहीं सकता। और प्रेम केवल एक के साथ ही हो सकता है, दस लोगों के साथ नहीं हो सकता। दस के साथ सहानुभूति हो सकती है, दस लोगों के साथ अटैचमेंट हो सकता है, चालीस लोगों के साथ परिचय आपका हो सकता है।
प्रेम नहीं हो सकता। प्रेम तो केवल एक व्यक्ति से होगा या तो ईश्वर से होगा या गुरू से होगा या किसी से भी होगा और जिसके प्रति प्रेम है उसके प्रति जान न्यौछावर होती है। भक्त अपने आपको पूर्ण रूप से समर्पित कर देता है, मीरा फिर राजमहल से नीचे उतर जाती है, सड़कों पर यह नहीं देखती फिर कि मैं कुल वधू हूं, राजघराने की रानी हूं, वह तो घुंघुरू बांधकर सड़क पर खड़ी हो जाती है, उसके आराध्य, उसके पति, उसके प्रेमी कहां है, उसको ढूंढने के लिये सड़क पर उतर आती है, वह समझती है इस राजमहल में षडयंत्र है, इसमें धोखा है, विश्वासघात है। और विश्वासघात किया राजा ने उसके लिये जहर का प्याला भर कर भेजा, सांप की पिटारी भेजी और मारने के षडयंत्र किये। मीरा ने कहा कि इनसे मेरा बाल-बांका नहीं हो सकता क्योंकि मेरे अन्दर एक ज्योति है प्रेम की और उसके अन्दर एक व्यक्तित्व बैठा है, वह मुझे मरने नहीं देगा, मैं जहर का प्याला भी पी लूंगी और उसने पी भी लिया। और जब उसने देखा षड़यंत्र बहुत अधिक हो गया तो वह अपने आप में उस प्रिय की रक्षा करने के लिये सड़कों पर उतर गई कि कहीं उस प्रिय को ही नुकसान नहीं पहुंचा दें। वह उतर गई कि तुम्हें बचाना मेरा धर्म है, मेरा कर्तव्य है। इसलिये नहीं कि वह नाचनें, गाने के लिये सड़क पर उतरी थी। वह इसलिये निकली थी, कि ये षड़यंत्र कहीं वहां तक नहीं पहुंच जाये। मेरा प्रेम कृष्ण से हैं, ये षड़यंत्रकारी कृष्ण को भी समाप्त कर देंगे, मैं उसे कैसे बचाऊं? उसके लिये चाहे राजमहल भी छोड़ना पड़े, मैं राजमहल भी छोड़ दूंगी।
और वह नीचे उतर गई। आप सोचिये राजघराना, राजस्थान, सामंती प्रथा, षड़यंत्रकारियों का एक गढ़ जहां छल, झूठ-कपट के अलावा कुछ था ही नहीं, उसके बीच में पुरूष तो फिर भी रहे पर स्त्री! वह भी कुलवधू! वह घुंघुरू बांध कर नीचे उतर जाती है, इसलिये कि मुझे हर हालत में अपने प्रेमी की रक्षा करनी है, उस कृष्ण की रक्षा करनी है। जो मेरे चित्त में बसा हुआ है। इसके अलावा न उसे पति से प्रेम था, न राज घराने से प्रेम था, न हीरों के हार से प्रेम था और इसलिये मीरा जीवित रह सकी, इसलिये सूर जीवित रह सके, इसलिये कबीर जिन्दा रह सके, इसलिये नानक जिन्दा रह सके, वह घर से निकल पड़े केवल एक लक्ष्य के साथ कि मेरे अन्दर प्रेम हो। आपका प्रेम केवल एक के साथ ही हो सकता है या तो कांटों के साथ हो सकता है या गुलाब के फूलों के साथ हो सकता है। दोनों से एक साथ नहीं हो सकता। यह आप पर निर्भर है कि आप कांटों के साथ प्रेम करते हैं कि आप गुलाब के साथ प्रेम करते हैं।
मगर शंकराचार्य कहते हैं कि अपने जीवन को उच्चता तक पहुंचाने के लिये आपको इसी क्षण से परिवर्तित होना पड़ेगा या तो आप नीचे धरातल पर चले जायेंगे, या फिर ऊंचाई पर चले जायेगें। यह फिर आपके हाथ में है या तो आप षड़यंत्रकारी बन जायेंगे या गुलाब के फूल बन जायेंगे या तो कांटे बन जायेंगे। आप क्या बनेंगे, अभी से उसके लिये आपको प्रयत्नशील होना पड़ेगा। आप किसके साथ प्रेम कर रहें हैं, यह आपको सोचना पड़ेगा। आप अपने कोट के कालर पर बबूल की टहनी नहीं लगाते, एक गुलाब का फूल लगाते है और गुलाब का फूल ही जिन्दा नहीं रहेगा तो हृदय पर लगाएंगे भी क्या?
एक प्रेम करने वाला गुलाब के फूल के माध्यम से अपनी भावनाओं को स्पष्ट करता है। वह कहना चाहता है कि जिस प्रकार गुलाब मुस्कुराता है उसी प्रकार मैं तुम्हारी मुस्कुराहट को देखना चाहता हूं। अपने अन्दर भी एक विकसित कमल है, फूल है, गुलाब है, भावनायें उसी गुलाब का प्रतिबिम्ब है, दस लोगों को गुलाब नहीं देते, दस ईश्वर को नहीं मानते, मीरा भी दस गुरूओं को नहीं मानती थी, वह तो कहती मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरा न कोई, दो लोगों से, चार लोगों से आप प्रेम नहीं कर सकते।
दूसरा कोई है ही नहीं वो मिलें नहीं मिलें, जिसे देखा भी नहीं उनको मगर मुझे मालूम है कि मेरे तो गिरधर गोपाल। अब नहीं मिले तो उसकी मर्जी, मैं खोज करके इन षड़यंत्रकारियों से बचाऊंगी, नहीं तो वह समाप्त हो जायेगा। उसे बचाने के लिये जमीन पर उतरना पड़ा तो जमीन पर उतरूंगी, लोक लाज खोती है, संसार मुझ थू-थू करेगा तो मुझे उसकी चिन्ता नहीं, मगर मैं कुछ करूंगी जरूर, हर हालत में उसे बचाने की कोशिश करूंगी। और मीरा आज अमर हो गई, सैकड़ों लोग उस जमाने के थे, वे समाप्त हो गये, उनके नाम हमें याद नहीं है। हजारों लोगों में से एक लड़की जीवित रह सकी, उच्च कोटि पर पहुंच सकी, बाकी सब लोग तो मर गये। शंकराचार्य कहते है, आपका प्रेम अपने गुरू से है, ईश्वर से है तो फिर दूसरा बीच में कुछ नहीं है।
पाणिनी व्याकरण में, शब्दकोश में प्रेम शब्द का अर्थ दिया है अपने आपको पूर्ण रूप से मिटा देना, विसर्जित कर देना, अपने आपको समाप्त कर देना, उसके लिये और प्रेम आपने आपमें उच्च कोटि के व्यक्तित्व से ही किया जा सकता है, निम्न कोटि के व्यक्तित्व से आप प्रेम करें स्वयं बबूल बन जायेंगे। शास्त्रों में लिखा है कि वह उच्च कोटि का व्यक्तित्व या तो ईश्वर है या ब्रह्म है या गुरू है, चौथा कोई व्यक्ति है ही नहीं, चौथा कोई शब्द नहीं बनाया। बाकी सब हाड़-मांस के पुतले हैं जो बड़े होते हैं, पिघलते हैं और गिर जाते हैं, और हम भी उनके बराबर खड़े होते हैं, पिघलते हैं और समाप्त हो जाते हैं। क्या समाप्त हो जाने के बाद हमारे जीवन का कोई अस्तित्व बचा? क्या मरते समय हमारे होठों पर मुस्कुराहट दिखाई दी?
कैरियर का मतलब क्या है? तुमने बीस लाख रूपये कमा लिये या तुमने व्यापार बहुत ऊंचा कर लिया, यह कैरियर नहीं कहलाता। अगर ऐसा ही होता तो यहां तो सभी कैरियर वाले बैठें है दिल्ली में, हमसे तो ऊंचा कैरियर है उनका। यह कोई कैरियर नहीं, यह अपने आप में महानता नहीं है, ऐसा होता तो यहां कोठियों में महान ही महान व्यक्ति बैठें हैं, कई गुना ज्यादा पैसे वाले भी हैं, एक-एक कोठी दो-दो करोड़ की है। तो फिर महान से नीचें कोई है ही नहीं, सामान्य कोई है ही नहीं। मगर उनके चित्त में क्या है? वे कैसे व्यक्तित्व है, क्या वे छल कपट करके महान बनने की कोशिश कर रहे हैं? नहीं वे केवल छलावा करते हैं, अपने आपको धोखा देते हैं कि हम महान बन गये, एक मन्दिर में चंदा देकर बीस हजार रूपये उसके अध्यक्ष बन जाते हैं और सोचते हैं कि मैं मन्दिर का अध्यक्ष बन गया हूं। जबकि वे नहीं बने हैं, वे बीस हजार रूपये अध्यक्ष बने हैं, उन बीस हजार रूपये की वजह से बने हैं। लोग उन्हें नहीं पूज रहे हैं, उन बीस हजार रूपयों को पूज रहे हैं।
यह अपने आप में भगवान को धोखा देने की क्रिया है, अपने आप को धोखा देने की क्रिया है यदि आपके शरीर में सुगन्ध है, आपमें यदि प्रेम है तो आप वास्तव में उच्चता पर स्थित हैं। प्रेम का अर्थ है। उपने आप को मिटा देने की, फना कर देने की क्रिया, उसके लिये अपने आपको न्यौछावर कर देने की क्रिया, तिल-तिल कर के जल जाने की क्रिया। यदि ऐसा है तो जीवन की सार्थकता है। और यदि ये शब्द शंकराचार्य ने कहे हैं, तो इसलिए कि शंकराचार्य इस पगडण्डी पर चले अपने गुरू के लिये तिल-तिल कर के जले। उनके गुरू के जब अंतिम क्षण थे तो शंकराचार्य बद्रीनाथ से दौड़कर वापस उनके पास पहुंचे, एक क्षण भी बीच में विश्राम नहीं किया उस समय बस, ट्रेन नहीं थी। और अंतिम क्षणों में अपने गुरू के सिर को अपनी गोद में लेकर बैठें कि मैं शंकर हूं और आपके पास वापस आ गया हूं आप जाइये मत।
उन्होंने कहा-शंकर मेरे पास कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो तूफान और मेरे बीच में खड़ा होता, तूफानों ने, कांटों ने मुझे समाप्त करने की क्रिया कर दी और मै समाप्त हो रहा हूं। और उसके बाद शंकराचार्य के चेहरे पर मुस्कुराहट नहीं आई, होठों पर खिलखिलाहट नहीं आई, वे काव्य लिख ही नहीं सके, घुल कर के रह गये और केवल 11 महीने बाद केदारनाथ के पास अपने आपमें घुलते-घुलते समाप्त हो गये जबकि गुरू से मिलने नहीं मिलने के बीच में 18 साल बीत गये थे। जब गुरू से बिछड़े केरल में, उसके बाद पूरे भारत का भ्रमण किया और जब वापस गुरू से मिले तो 18 साल का अंतराल बीच में था, मगर एक क्षण भी वे उस गुरू से अलग नहीं हो पाये। जब मालूम पड़ा कि गुरू बीमार है तो सब कुछ छोड़-छाड़ के दौड़ते हुए वहां पहुंचे, 800 मील की यात्र करके और जब गुरू का सिर गोद में लिया तो गुरू ने कहा जो कुछ मुझे करना था वह अधूरा रह गया, क्योंकि तूफ़ानों ने, अंधेरों ने, इन कांटों ने मुझे समाप्त कर दिया। क्योंकि कोई व्यक्ति तुम्हारी तरह नहीं था जो बीच में खड़ा होता, उनमें त्याग करने को भावना नहीं थी, वे स्वार्थमय थे, मुझसे सीखे और भाग गये, उनका नाम तो अपने होठों से लेना मैं उचित नहीं समझता।
शंकर ने कहा मैं बैठा हूं तो गुरू ने कहा अब बहुत देर हो गई है, अब यह शरीर इतना गल चुका है कि इसमें प्राण अब नहीं टिक सकते, मजबूत चारदीवारी में ही कोई चीज रह सकती है। चारदीवारी गल जायेगी तो कोई भी अन्दर घुसेगा ही घुसेगा। उसके बाद मन्दिर सुरक्षित नहीं रह सकता। अब शंकर यह मन्दिर नहीं रह सकता, अब यह गिरेगा क्योंकि चारदीवारी टूट चुकी है। और वहीं उन्होंने प्राण त्याग दिये। उनका प्राण त्यागना हुआ, शंकर की मुस्कराहट समाप्त हो गई, उनकी हंसी समाप्त हो गई, उसके बाद ग्यारह महीने में एक लाइन नहीं लिख सके और इतने घुल गये कि मैंने बहुत बड़ी गलती कर दी, मैंने पूरे देश से बुद्धत्व को तो समाप्त कर दिया, मैंने शंकरभाष्य जैसा ग्रंथ तो लिखा, मगर अपने गुरू की रक्षा के लिये कुछ नहीं कर पाया, मेरे जैसा अधम व्यक्तित्व कोई नहीं है। अंतिम क्षणों में उन्होंने जो श्लोक लिखे उन में से चार-पांच में तो उन्होंने अपने आपको अधम कहा है, अपने आप को पापी कहा है, उन्होंने अपने आपको निर्लज्ज कहा है, उन्होंने कहा है कि मै सबसे घटिया व्यक्तित्व बन गया, क्योंकि जो मुझे करना चाहिये था, वह मैं नहीं कर पाया। जो नहीं करना चाहिये था, उसके लिये मैं भागता फिरा।
शंकर उस पगडण्डी पर चला इसलिये उसने लिखा कि प्रेम अपने आपमें आत्मोत्सर्ग करने की क्रिया है, अपना सब कुछ सौंप देने की क्रिया है, अपने आपको मिटा देने की क्रिया है, इसलिये कि वह व्यक्ति जिन्दा रह सके, जो मुस्कुराहट बिखेर सके, जो सुगन्ध बिखेर सके, पृथ्वी पर अपने आपको व्याप्त कर सके और तूफानों को समाप्त कर सके, कांटों को तोड़ सके। अगर उनको ही समाप्त कर दिया, उस चार दीवारी को ही टूटने दिया, और हम टुकुर-टुकुर देखते रहे, तो मन्दिर जरूर गिरेगा ही गिरेगा। जो चार दीवारियां गिरायेंगे, वे मन्दिर भी गिरायेंगे, और जब मन्दिर गिर गया तो भगवान भी गिर गये और भगवान गिर गये तो फिर अंधेरा ही अंधेरा हो गया, खण्डहर बन गये। अगर हम खण्डहर को देखना चाहते ते हैं तो ठीक है, मन्दिर को जीवित देखना चाहते हैं तो हमें प्रेममय होना ही पडेगा, न्यौछावर करना ही होगा। शंकराचार्य जैसा व्यक्तित्व आज तक पिछले हजार वर्षों में पैदा ही नहीं हुआ। उन्होंने जीवन को सही ढंग से समझा, शिष्य भी बने, गुरू भी बने, पर उन्होंने एक क्षण भी अपने हृदय से गुरू को निकाला नहीं। उन्होंने कहा कि ईश्वर कुछ होता ही नहीं, उन्होने कहा कोई मां-बाप नहीं होता न तातो न माता न बंधु र्न भ्राता किसी ने उनके सामने कहा कि एक बहन है तो उन्होने कहा अहं ब्रह्मास्मि, मैं खुद ही ब्रह्म हूं, द्वितीयों नास्ति, इस संसार में दूसरी कोई चीज है ही नहीं, ब्रह्म हूं तो मैं जो कुछ कर रहा हूं, सही कर रहा हूं।
मगर आखिर में वे कहते है कि मेरे जैसा कोई अधम व्यक्ति नहीं है क्योंकि उस व्यक्ति को और बीस साल जीवित रहना चाहिये था, मगर तूफानों ने घेरकर उसे समाप्त कर दिया। इससे पाप इतना होगा कि मैं वापस पैदा ही नहीं हो सकूंगा। इतना अधम कार्य मैंने किया है कि मैं अपने आप को क्षमा ही नहीं कर सकूंगा। इतनी ग्लानि हो रही है कि अब मेरे चेहरे पर मुस्कराहट नहीं आ सकती क्योंकि जिनके लिये मुझे जीवन देना था वह मैं नहीं दे पाया। जिन्होंने मुझे ज्ञान की ज्योति दी, जिसके कारण मैं शंकरभाष्य लिख सका, उस ज्ञान की ज्योति को ही समाप्त हो जाने दिया। पाणिनी ने कहा- प्रेम का अर्थ दो शरीरों का मिलन नहीं होता। प्रेम का अर्थ है कि वह दूर भी है तो भी अपने आपको न्यौछावर कर देने की क्रिया। अगर मीरा की तरह उसको नहीं देखा है तब भी महलों से नीचे उतर आना है। उसने तो कृष्ण को देखा ही नही था, वह तो महलों से नीचे उतरी कि उसको ढूंढूंगी और उन षड़यंत्रों से उसको बचाऊंगी।
शंकर भी उसी समय दौड़कर गये जब देखा कि मन्दिर गिरने वाला है। मैं जाऊं और उनके पास रहूं, ये पोंथे, ये ग्रंथ कोई मेरे काम नहीं आयेंगे क्योंकि उन्होंने मुझे यह ज्ञान दिया था, उस ज्ञान को ही मैं खण्डित कर दूंगा तो मेरे जैसा अधम व्यक्तित्व कोई नहीं होगा और अंतिम जो चार-पांच श्लोक निकले, वे अपने आप में आत्म ग्लानि से पूर्ण थे। क्या इतिहास हमें शिक्षा नहीं देता कि जीवन के हमारे अंतिम क्षण आत्मग्लानि से भरे न हों? क्या इतिहास हमें शिक्षा नहीं देता कि हम तूफानों का सामना करें, क्योंकि हममें क्षमता है, जवानी है, जोश है? क्या इतिहास इस बात को समझाता नहीं है कि हम मन्दिर को गिरने न दें और टुकुर-टुकुर देखते न रहें? क्या इतिहास हमें क्षमा करेगा कि वह गुरू षड़यंत्र का शिकार बना और हम बैठे-बैठे देखते रहें?
इतिहास नहीं क्षमा करेगा, फिर तुम्हारे जीवन का अर्थ क्या रहेगा? फिर तुम्हारे जीवन का मूल्य क्या रहेगा? फिर तुम शिष्य कैसे बनोगे? शिष्य वह तो है ही नहीं कि दीक्षा दी वही शिष्य है। यह तो जन्म से लगाकर के मृत्यु तक की सारी क्रिया शिष्यता है, आप सीढि़यों पर चढ़ रहे हैं। या उतर रहें हैं यह शिष्यता है, आप तूफानों से टक्कर ले रहे हैं या तूफानों का शिकार हो रहें है। यह शिष्यता है, आप मन्दिर को गिरता देख रहे है या मन्दिर को बचाने में तत्पर हैं, यह शिष्यता है। अपने गिरजाघर को गिरने दिया या बचाया, आपने गुरूद्वारा को समाप्त किया या बचाया, यह शिष्यता है।
पंजाब में तो कोई भगवान हैं ही नहीं, उनके तो गुरू ही हैं और वह गुरू का द्वारा है, जिस मन्दिर में वे घुसते हैं, ईश्वर क्या होता है? नानक ने तो हमें यह सिखाया है कि गुरू होते हैं। और उनके धर्म ग्रंथ का नाम भी गुरू ग्रंथ साहिब है, कृष्ण ग्रंथ साहिब या राम ग्रंथि साहिब नहीं है, गुरू ग्रंथ साहिब है। उन्होंने कुछ समझा होगा, उन दस गुरूओं ने कुछ समझा होगा कि जीवन की श्रेष्ठ स्थिति गुरू है। इसलिये जहां हमने मन्दिरों के नाम राम मन्दिर, कृष्ण मन्दिर शिव मन्दिर रख दिये। उन्होंने एक ही नाम दिया गुरू द्वारा, दूसरा कोई नाम ही नहीं दिया, एक ही पुस्तक लिखी उसको गुरू ग्रंथ साहिब कहा। उन्होंने इस बात को समझा कि वास्तव में गुरू क्या होता है? और यह समझने की चीज है कि पंजाब के प्रत्येक व्यक्ति ने समझा कि ईश्वर तो बहुत बाद की चीज है। जीवित ईश्वर गुरू है, उनको भी हमने नहीं समझा तो सब व्यर्थ है। इसलिये उन्होंने उस जीवित ईश्वर को गुरू नाम दे दिया।
उन्होंने कहा हमें ईश्वर से मिल भी क्या जायेगा, मिलेगा तो इस गुरूद्वारे में मिलेगा, मिलेगा तो इस गुरू ग्रंथ साहिब में मिलेगा। और वह तब मिल सकता है जब अन्दर क्रोध समाप्त होगा, हिंसा समाप्त होगी। तुम क्रोध के घोडे़ पर सवार होकर आओगे तो तुम्हारे जैसा अधम कोई व्यक्ति ही नहीं है, तुम्हारे जैसा नीच व्यक्ति कोई नहीं है। तुमने क्रोध किया और अपने जीवन को समाप्त कर दिया, तुमने क्रोध किया और अपने जीवन को बर्बाद कर दिया, तुमने अगर प्रेम का अंकुर फैलाया ही नहीं तो फिर तुम्हारे जीवन का कोई अर्थ ही नहीं । तुमने प्रेम किया यह चार सीढियां ऊंचें चढ़ने की क्रिया हुई। प्रेम के लिये अपने आप को न्यौछावर कर दिया, तो चार सीढियां और चढ़ गये। प्रेम के आगे कुछ है ही नहीं, इसके आगे कोई शब्द ही नहीं है। क्योंकि वह तो मिलने की क्रिया है, एक दूसरे की छाया बनने की क्रिया है, एक दूसरे में समाहित हो जाने की क्रिया है, अपने आपको विसर्जित कर देने की क्रिया है।
और यदि आप अपने आपको न्यौछावर नहीं कर पाये तो फिर इस जिन्दगी का भार ढ़ोकर के चल रहे हो। यह उच्चता नहीं है। यह मनुष्यता भी नहीं है, यह श्रेष्ठता भी नहीं है, यह तो तुम्हारा एक खेल है, यह एक मृग मरीचिका है, छल है, छल है कि मैं एक कोठी बना दूंगा तो महान बन जाऊंगा, इस मन्दिर का अध्यक्ष बन जाऊंगा तो महान बन जाऊंगा। दिल्ली में तौ सैकड़ों अध्यक्ष होंगे, हमें तो नाम भी पता नहीं हैं।
और गुरू की पहिचान तो अपने आप में मन की आंखों से ही सम्भव है, अगर प्रेम का अंकुर फूटा ही नहीं, तो आपने गुरू को पहचाना ही नहीं। पहचान लें जिससे प्रेम का वह अंकुर तेजी से बढ़ने लगे क्योंकि तुम्हारे अन्दर प्रेम है तो परन्तु तुमने उसे जागने नहीं दिया है। इसलिये जागने नहीं दिया कि उसके ऊपर घृणा, बाहर की हवा, तूफान हावी हो गये। तुम भाग बन गये उसके, और उस प्रेम को तुमने दबा दिया। ज्योंहि अंधेरे को हटाया, क्रोध को हटाया, छल को हटाया तो प्रेम का अंकुर फूटा, फूटा और तुम्हारा चेहरा मुस्कुराहट से खिल गया, तुम्हारे शरीर से सुगन्ध निकलने लगी, तुम्हारा शरीर सुगन्धि, सुवासित होने लगा, एक महक आने लगी, एक आंखों में सुरूर पैदा हुआ, एक जिन्दगी की धड़कन पैदा हुई और उसकी रक्षा के लिये अपने आप को तैयार कर दिया, उसके लिये अपने आपको न्यौछावर कर दिया, उसके लिये आपने आपको आत्मोत्सर्ग कर दिया।
जितने भी महान बने, उन्होंने उस प्रेम के अंकुर के ऊपर से इन चीजों को हटाया, उनके शिकार नहीं बने। बाहर निकलोगे तो केवल झूठ मिलेगा, छल मिलेगा, षड़यंत्र मिलेगा और दो षड़यंत्रकरी मिल जाते हैं, तो ऊंचे से ऊंचे राज्य को समाप्त कर देते हैं। षड़यंत्र जल्दी पनपता है, कांटे बहुत जल्दी फैलते हैं, गुलाब का फूल बड़ी मुश्किल से खिलता है, उसको खाद पानी देना पड़ता है कि पौधा मजबूत हो जाये। गुलाब का फूल मुश्किल से खिलता है, ऊंचा उठता है। कांटो को आप कुछ नहीं करें, तो भी फलते ही जायेंगे, और कांटो से पैर लहूलुहान हो जाते हैं, सेप्टिक हो जाता है। आप क्या बो रहे है? आपके हृदय में कांटे है, आपके हृदय में घृणा है, है क्योंकि उस वातावरण में आप सांस ले रहे हैं। क्या आपमें क्षमता है कि आप उनको हटायें? हटायेंगे तो पहली बार अच्छे स्तर पर सीढि़यां चढ़े।
आपने उस प्रेम की अग्नि को थोड़ी सी हवा दी तो फिर आप उच्चता की सीढि़यां चढे। आपने अपने प्रेम को लहलहाया, पौधा बनाया, आप महानता की ऊंचाई पर पहुंचे, आपने प्रेम को किसी पर न्यौछावर कर दिया, आप ऊंचाई पर पहुंच गये, आपने अपने आपको समर्पित कर दिया, यह जीवन का श्रेष्ठता है। ऐसी श्रेष्ठता आपको मिले क्योंकि आपके अन्दर की घृणा, आपका क्रोध जब तक है तब तक आप घटिया से घटिया इंसान है, षड़यंत्रकारियों के आप भाग है तो आपसे अधम कोई व्यक्तित्व नहीं है। यदि आपमें प्रेम है और प्रेम का पौधा लहलहा रहा है, प्रेम से आपने किसी को सींचा है, तो आप श्रेष्ठ हैं। गुलाब का फूल खून से सींचने से बड़ा होता है आप देखेंगे कि कई बार गुलाब के पौधे में खून दिया जाता है, जिससे एक-एक किलो के फूल भी खिलते है।
खून के माध्यम से प्रेम पनप सकता है। जीवन को उत्सर्ग करने के माध्यम से पनप सकता है। जहां प्रेम पनपा फिर वहां सब कांटे समाप्त हो गये। और जीवन का एक आनन्द, जीवन की एक मस्ती, जीवन की एक पूर्णता, जीवन की एक श्रेष्ठता मिल गई। मिल गई तो आप सही अर्थों में हरिदास बन गये, आप सही अर्थों में शंकराचार्य बन गये, आप सही अर्थों में महापुरूष बन गये। इतिहास यही याद करेगा कि इतिहास में तुम अपना नाम किस ढंग से लिखाने आये हो, चंगेज खां के नाम से लिखाते हो, औरंगजेब के नाम से लिखाते हो, अकबर के नाम से लिखाते हो, या शंकराचार्य के नाम से लिखाते हो, किस तरीके से लिखाते हो यह तुम्हारे हाथ में है। तुम क्या बनते हो यह तुम्हारे हाथ में है। तुमने दिन भर में गुरू को क्या दिया, यह तुम्हारे हाथ में है- मुस्कुराहट दी या घृणा दी, षड़यंत्र दिया या प्रेम दिया, तूफान की तरह खडे़ होकर उसको बचाया या उसको मारने के लिये तत्पर हुये।
आपने क्या दिया, यह आपका अपना गणित है। मैं आशीर्वाद देता हूं कि आपके हृदय में प्रेम का अंकुर फूटे आप किसी की ढाल बन सकें, आपने मन में जो घृणा दूसरों ने भर दी है, जो षड़यंत्र, डर, भय, आतंक है, उनको आप हटा कर निर्भीक हों। आप निर्भीक हैं तो जीवित हैं, जाग्रत हैं। डरे हुए हैं, तो आप अधम, गए बीते हैं। जब भय रहित होंगे तब प्रेम व्याप्त हो पायेगा। ऐसे ही आप भय रहित, निर्भय हो करके अपने अन्दर के गुलाब को, प्रेम को विकसित करें और आप आत्मोत्सर्ग हो सकें और एक ज्ञान के दीप को, एक गुलाब के फूल को जीवित, जाग्रत, चैतन्य बनाए रख सकें, जिससे कि वह सुगन्ध चारों तरफ फैल सके। यही आपके जीवन की क्रिया बने, ऐसा ही मैं हृदय से आशीर्वाद देता हूं, कल्याण कामना करता हूं।
சத்குருதேவ் சுவாமி நிகிலேஸ்வரானந்த பரமஹன்சர்
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